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Thursday, September 1, 2022

‘द्वापर गाथा’ महाकाव्य का काव्य-प्रसंग - डॉ. विनय कुमार चौधरी

 काव्य-प्रसंग

"द्वापर गाथा" महाकाव्य (2012)


कोशी अंचल की एक अदम्य प्रतिभा का नाम है -ध्रुव नारायण सिंह राई। राई जी के भीतर सागर-सी अनुभूति-प्रवणता और पहाड़ जैसी अभिव्यक्ति-आकुलता है। संवेदना-समृद्ध होने के कारण ही वे मूलतः कवि हैं और विशेषतः प्रबंधकार। यद्यपि निबंधकार और आलोचक के रूप में भी उनके प्रयास मौजूद हैं ; लेकिन यह उनका अतिरिक्त कुछ है। वस्तुतः कविता ही उनकी आत्म-भाषा है।

पाठकीय संवेदना को झकझोरने में पूर्णतः सक्षम ‘अँगूठा बोलता है’ कवि राई की प्रथम और सफल प्रबंध कृति है जिसमें उन्होंने द्वापर की कथा कही ही है, लेकिन वे अपने आपको दलित-द्राक्षा बनाकर भी उतना नहीं उड़ेल सके, जितना और जिस रूप में चाहते थे। उनकी असंतुष्टि घनीभूत होकर अन्ततः इस दूसरे काव्य ‘द्वापर गाथा’ में प्रस्फुटित हुई। ‘द्वापर गाथा’ काव्य संतोषजनक ही नहीं, सफल एवं सराहनीय प्रयास है। अठारह सर्गों में निबद्ध यह काव्य राई को सिद्ध कवि और सक्षम प्रबंधकार प्रमाणित करने में समर्थ है। जिस द्वापर काल में युधिष्ठिर, अर्जुन, कृष्ण जैसे चरित्र हुए, महाभारत जैसी युगान्तरकारी घटना हुई और जिस युग का ‘अभ्युत्थानाय ..................... ’ कहकर गौरव-गान किया जाता रहा है, आदर्श के कथित मानक उस युग में भी विकृतियाँ एवं विरूपताएँ विद्यमान थीं, लेकिन सामाजिक-रानीतिक विद्रूपताओं के कुत्सित चित्रों का गुप्त अलबम, सार्वजनिक करने का साहसिक प्रयास अब तक बहुत कम रचनाकारों ने किया है। कवि राई उन विरले साहसी रचनाकारों में से हैं, जिन्होंने ‘द्वापर गाथा’ को तद्युगीन नग्नता का बोलता हुआ एक आईना बना दिया  है।

लेकिन ‘द्वापर गाथा’ रूपी आईना उस युग को चिढ़ाने के लिए नहीं लिखा गया है, अपितु अपने समय और समाज को भी झाँकने और आँकने के लिए गढ़ा गया है। स्वयं कवि के शब्दों में - ‘‘अठारह सर्गों में निबद्ध यह महाकाव्य ‘द्वापर गाथा’ के मिस युग-युगों की गाथा है, जो उसके छद्मों को उजागर करता है।’’ कवि ने हिरोशिमा, नागाशाकी यहाँ तक कि खाड़ी युद्ध का शब्दशः उल्लेख करके द्वापर युग से अद्यतन को दृष्टि-दायरे में रखने का संकेत किया है।

                प्रस्तुत काव्य में द्वापर युगीन कथा का निरूपण अथवा तद्युगीन चरित्रों का चित्रण करना कवि का अभिप्रेत नहीं है। अगर ऐसा होता तो कथा-धारा अधिक सशक्त एवं प्रवाहपूर्ण होती। लेकिन अठारह सर्गों के व्यास-विस्तार में भी ‘द्वापर गाथा’ में न तो कोई प्रधान एवं सुशृंखलित कथा है और न ही कोई केन्द्रीय चरित्र। प्रबन्ध-काव्य के शास्त्रीय निकष के अनुरूप न होने के बावजूद ‘द्वापर गाथा’ की प्रबंधात्मकता असंदिग्ध है।

इस काव्य में द्वापर युग की कथा के बहाने समकालीन राष्ट्रीय समाज के खोटे सिक्कों के अनुचित प्रचलन को पहचान के दायरे में लाना और लघुजनों/श्रमजीवियों को समझ-सक्षम बनाना है, ताकि वे अपने युगनायकों के प्रति सही सलूक निर्धारित कर सकें। कवि के शब्दों में - 

‘व्यापार/फल-फूल रहा/खोटे सिक्कों का।’

‘द्वापर गाथा’ में कथा नहीं, कथा-आलोचन है। यह कथा नहीं है, क्योंकि कवि अपने पाठक-स्तर को इस योग्य मानता है कि द्वापर की कथा उसकी अन्तश्चेतना में पूर्व से ही विद्यमान है, जिसे संकेत-बटनों को दबाने मात्र से ही गतिशील किया जा सकता है। ये संकेत-बटन और कुछ नहीं कवि की संशोधक दृष्टि से उगे आलोच्य-बिन्दु हैं।

भावना, कल्पना, बुद्धि और शैली के संतुलित संयोग से ही श्रेष्ठ काव्य की सृष्टि संभव है। ‘द्वापर गाथा’ में कवि की भावना अवाम का पक्षधर बनकर उमड़ी है, दलित-चेतना का उभाड़ विस्फोटक रूप में व्यंजित है जिसमें कल्पना की संतरंगी आभा की दीप्ति भी है और वह मुक्त छन्द की आधुनिक शैली में अभिव्यंजित हुई है। बुद्धि तत्त्व के रूप में कवि की उच्च शिक्षाजनित ज्ञान-बुद्धि है, जो सजग आलोचक की तरह सदैव तत्पर है। ज्ञानात्मक अनुभूति का अकुंठ विस्फोट है- ‘द्वापर गाथा’। मानव सभ्यता के विकास को विनाश के गर्त्त में धकेल देने की मानवीय भूल का ही दूसरा नाम है - ‘महाभारत’ का युद्ध और इस भूल के लिए जिम्मेदार युग का नाम है- ‘द्वापर। सभ्यता-विनाश के लिए जवाबदेह उस ऐतिहासिक भूल की ही आवृत्ति-पुनरावृत्ति बीसवीं शती के प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में हुई। ऐसी विनाशक प्रवृत्ति रखने वाले, विध्वंसक परिस्थिति उत्पन्न करने वाले मानवताघाती तत्त्वों को धर्मवीर भारती ‘अंधा युग’ के कटघरे में खड़ा करते हैं, तो रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ‘कुरुक्षेत्र’ में - ‘‘वह कौन रोता है वहाँ इतिहास के अध्याय पर ?’’ कहकर पाश्चाताप प्रेरित करते हैं। परम्परा की उसी कड़ी में कवि राई भी हैं जो सभ्यता-विकासजनित  वैज्ञानिक इजादों के दुरुपयोग पर ध्यानाकर्षण का प्रयास करते हैं- ‘‘लोंगो ने/क्यों किया/अपना हाल बेहाल/गलत इस्तेमाल/साधना- तपस्या का/कला-कुशलता/वर ज्ञान और विज्ञान का ?’’

‘अष्टादश पुराणेषु व्यासस्यवचनम् द्वयम्’ की भाँति अठारह सर्ग-पुराणों वाले ‘द्वापर गाथा’ काव्य में व्यास कवि राई ने निष्कर्षात्मक रूप से दो बातें कहीं हैं: एक तो यह कि राजा जैसे शीर्ष पद का अधिकारी होना बड़ी बात होकर भी बड़ी नहीं है अगर उसके पार्श्व में विपन्नता क्रन्दन कर रही हो और दूसरी बात कि आदमीयत से युक्त आदमी ही वरेण्य है - ‘‘राजा होना/बड़ी बात है/बड़ा होना/सबकुछ नहीं।/सम्पन्नता से क्या होता/बगल विपन्नता विलक रही?/शक्ति सुरक्षा देकर ही/सचमुच होती शक्ति/व्यक्ति सरल होकर ही/पा सकता है भक्ति।/कोई कुछ न रहे तब भी/कुछ अन्तर न आता कोई/आवश्यकता आज इतनी ही/कि आदमी रहे आदमी।’’

डाॅ. विनय कुमार चौधरी
04/05/2003
सनातकोत्तर हिन्दी विभाग
बी. एन. मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा
मो. 94306 62812



                                                



                                          
                                        
                                
                                            

               


  (श्रोत- द्वापर गाथा महाकाव्य,  2012)

द्वापर गाथा 
महाकाव्य

ध्रुव नारायण सिंह राई
2012




द्वापर गाथा महाकाव्य ध्रुव नारायण सिंह राई
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