🔗 द्वापर गाथा महाकाव्य ध्रुव नारायण सिंह राई |
(पुस्तक समीक्षा)
राष्ट्र की धरोहर है “द्वापर गाथा” महाकाव्य
- डॉ. अलका वर्मा
मां निषाद प्रतिष्ठा त्वगम शाश्वती समाः।
यत्क्रौचमिथुनादेकमबधी काममोहितम।।
अर्थात हे दुष्ट तुमने प्रेम में मगन क्रौच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी और तुझे भी वियोग झेलना पड़ेगा। इसी के बाद वाल्मीकि ने ‘रामायण’ लिखा और अमर हो गए।
“जिसमें सर्गों का निबंधन हो वह महाकाव्य कहलाता है। महाकाव्य का शाब्दिक अर्थ “महान काव्य” होता है। प्राचीन काल से ही विभिन्न विद्वानों ने महाकाव्य की परिभाषा भिन्न-भिन्न रूप में दिए हैं। महाकाव्य वास्तव में किसी ऐतिहासिक या पौराणिक महापुरूष की संपूर्ण जीवन का आद्योपान्त वर्णन होता है, हिन्दी का प्रथम महाकाव्य चंदबरदाईकृत ‘पृथ्वीराज रासो‘ को महाकव्य माना जाता है, हिन्दी के कुछ प्रसिद्ध महाकाव्य हैं- ‘रामचरित मानस‘, ‘साकेत’, ‘कामायनी’, ‘पद्मावत’, ‘उर्वशी’, ‘प्रिय प्रवास’, ‘लोकायतन’ आदि।
आधुनिक युग में महाकाव्य के प्राचीन प्रतिमानों में प्ररिवर्त्तन हुआ, अब सिर्फ ऐतिहासिक कथा नहीं मानव जीवन की कोई भी धटना या समस्या महाकाव्य का विषय हो सकता है। महाकाव्य महाभारत के पात्रों को लेकर अनेक खण्डकाव्य और महाकाव्य लिखे जा चुके हैं। श्री ध्रुव नारायण सिंह ‘राई’ रचित यह द्वापर गाथा ‘महाकाव्य’ महाभारत के विभिन्न प्रसंगों की व्याख्या करता हुआ अठारह सर्ग में विभक्त है। महाभारत भी अठारह सर्ग का है। एक छोटे से कस्बे के शिक्षक अपनी लेखनी से वर्तमान समय में कोई महाकाव्य लिखता है तो वह महाकाव्य कवि का ही नहीं समाज का भी धरोहर है। काव्य का लेखन को कहा जाता है –
मनुष्य होना भाग्य है
कवि होना सौभाग्य है
विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के लक्षण बताए हैं। यह महाकाव्य उन सारी लक्षणों में खरी उतरती है। हिन्दी महाकाव्य का सृजन की परंपरा में तीन तत्व कथावस्तु, नायक तथा रस मान्य है। सारे तत्व इस महाकाव्य में मौजुद है।
इस महाकाव्य के रचयिता महाकवि ध्रुव नारायण सिंह राई गाँव की मिट्टी में पले बढ़े निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के ज्येष्ठ पुत्र कठिन परिश्रम एवं जीवन के झंझावातों से लड़कर अपने मुकाम पर पहुँचे। एक शिक्षक के रुप में, एक प्राधानाध्यापक के रुप में, एक साहित्यकार के रुप में सिर्फ त्रिवेणीगंज जैसे कसबे को ही नहीं जिला, राष्ट्र का नाम रोशन किया, कहा जाता पानी स्वयं अपना रास्ता ढूढ़ लेती है। उनके अपने उज्जवल चरित्र ने स्वयं अपना स्थान समाज में बनाया, स्वयं ही नहीं सैकड़ो बच्चों का भविष्य के निर्माता बने। शिक्षा जगत के साथ-साथ साहित्य जगत में भी अपनी प्रखर लेखनी से क्रान्ति उत्पन्न करते रहे।
महाकाव्य की कुछ विशेषता अवश्य होनी चाहिए, इस महाकाव्य की अपनी विशेषताएँ हैं, जो इसे महाकाव्य का दर्जा देता है। महाभारत जैसे कथा इतिहास प्रसिद्ध होनी चहिए या इसका नायक उदात्त चरित्रवाला, इसमें मानव जीवन की विशद व्याख्या होनी चाहिए। साथ कम से कम आठ सर्ग अनिवार्य रुप से होना चहिए। यह महाकाव्य इन सारी विशेषता को पूर्ण करता है। महाभारत के पात्रों पर आधारित आज के समय में महाकाव्य लिखना आसान काम नहीं है । ‘राई’ जी ने प्राचीन मिथको को तोड़ नया इतिहास लिखा है। उन्होंने रुढ़िवाद को नहीं माना। उनकी संवेदना नारी के प्रति मुखरित हो उठती, भरी सभा में भीष्म जैसा योद्धा, विदूर जैसे परामर्शदाता, कृपाचार्य एवं द्रोणाचार्य जैसे ज्ञानी के रहते और भरी सभा में एक नारी को निर्वसन करना आज तक जन-जन को बेधता है। इसलिए महाकवि कहता है –
कैसा पाखंड!
कैसी गर्वोक्ति!
कर्ता होकर भी
भोक्ता बनकर भी
बच निकलता है
उन्नत मस्तक चलता है।
(प्रथम सर्ग)
और नारी जिसे निर्दोष होते हुए भी दोनों तरफ से झेलना पड़ता है। अहिल्या शापित हुई उसका क्या दोष था? जिसे शापित होना चाहिए वह राजा बना, जो निर्दोष है उसे पत्थर बनना पड़ा। वाह रे नियति। कविवर के शब्दों मे-
कैसी दुधारी चाल
हर हालत में
सहना पड़े
नारी को
लोकापवाद
रहना पड़े
प्रतीक्षा में
चरण-रज-स्पर्श की
बनकर जड़ पाषाण!
(प्रथम सर्ग)
नारीयों में द्रोपदी कमजोर नहीं है। वह राजकुल की सुख सुविधा में पली-बढ़ी राजकुल में ब्याही फिर भी वन-वन पाँचों पतियों के सुख दुख की साथी बनी रही अन्याय चुपचाप सही नहीं बल्कि उसका विद्रोह की। स्वयं अपने अपमान का बदला ली भले ही इस क्रम में पूरा वंश का नाश हो गया किन्तु वह अपने साथ हुए अन्याय को नहीं भूली। कवि कहता है-
“मैं वस्तु नहीं
स्वतंत्र शक्ति हूँ,
एक व्यक्ति हूँ।
किसने दिया धर्मराज को
अधर्माधिकार?
पराजित प्रजापति
लगा न सकता कभी
दाँव पर अपनी स्त्री।
फिर तुम कौन?
क्यों करते अंधत्व-वहन?
उतार कर किसी स्त्री का चीर
कभी न कहला सकते प्रवीर।
(अठारह सर्ग)
भीष्म पितामह महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक थे । महाभारत के योद्धाओं का वर्णन आता है तो भीष्म पितामह का नाम आता है। उनके लिए कवि कहता है-
वंशवृद्धि निमित्त
तथाकथित पराक्रम-कुफल
अंबा को भोगना पड़ा
नियोग-नयास
महामुनि व्यास
रुग्ण रत्नों का जन्मदाता।
जीतकर
स्वयंवर में
स्वयं वरण न करना
क्या सूचित करता है?
सौंपना सुकन्याओं को
कापुरूषों को
क्या व्यंजित करता है?
(सर्ग अठारह)
कवि सभी पात्रों को निष्पक्ष ढंग से चरित्र चित्रण करता है विदूर को ज्ञानी एवं नीति निपुण कहा गया है। चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता था। युद्धिष्ठीर सत्य के राह पर है पर उसे खुलकर साथ नहीं दे पा रहा था। कवि कहता है-
खंड व्यक्तित्व
द्विधाग्रस्तता
कैसे चलता राज
होता विकास
बँटी हो जब निष्ठा?
संस्कार ओछा
सवर्दा सिद्ध किया।
क्या किसी को
परान्न ऐसे
देता मार
ढाता बनकर कहर
स्ववर्गीय पर
जानकर भी जन्मकथा?
(सर्ग अठारह)
दुर्योधन का चरित्र भले ही कलंकित हो किन्तु कर्ण को अंग का राजा बनाकर समतावादी राजपुरुष के श्रेणी में आया। कर्ण को राजगद्दी देने के पीछे उसका निहीत स्वार्थ था, कर्ण का निम्नकुल का होने में उसका क्या दोष था? उसे अपमान का दंश बारम्बार झेलना पड़ा। अखिर क्यों? रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के “रश्मिरथि” में भी कर्ण अपनी जाति पूछे जाने पर क्रोधित हो कह उठता है-
'जाति! हाय री जाति !' कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला
'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।
'ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,
शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।
सूत्रपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन?
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।
वही ‘राई’ जी कह उठते हैं-
आज तक
दूसरा कर्ण
नहीं आ सका
ऐंद्र को ललकारने
समाज को झकझोरने
रूढ़ियों को तोड़ने
परंपरा पार करने
अंधविश्वास विनाश करने
जो
खोलकर
हमारी दृष्टि
उतारकर
बड़प्पन का लबादा
और कहता—
यहाँ नेपथ्य में
क्या हो रहा है?
(सर्ग छह)
कवि शिक्षक रहे हैं, शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे व्यवसायिकता से पूरी तरह वाकिफ थे। कवि के शब्दों में
ज्ञान नपता है तुला पर और विद्या बिकती बाज़ार में
मेधा बेमोल रह जाती है आज यहाँ इस संसार में।।
इतना ही नहीं कवि आज की स्थिति जहाँ प्रतिभा बाधित मरी रहती । अपनी डिग्री या विलक्षणता लिए नवयुवक को भटकना पड़ता है चाहे कर्ण हो या द्रोण। कवि के शब्दों में-
रोज़ी-रोटी को भटक रहे अनगिनत नवयुवक प्रतिभावान्
चाहे धनुर्धारी कर्ण हो चाहे मेधावी द्रोण महान्।।
(सर्ग चौदह)
कवि श्रम के महत्व को स्वीकार करते हुए कहता है-
बहाकर श्रमिक श्रमसीकर अभिसींचता वसुंधरा।
उष्ण रूधिर वर दाना बनकर जन-जन को पालता।।
(सर्ग तेरह)
साथ ही कर्म सदा सर्वसुन्दर है। कवि शब्दों में-
श्रम सदा सर्वसुंदर रहा, शिवं सुजीवन दाता।
श्रमिक कब निज सत्य समर का मूल्य कभी निकालता?
(सर्ग तेरह)
कवि प्रेम को अमूल्य रतन मानते हैं-
प्रेम संबंध पावन
एक संर्पूण समर्पण
उच्चतम उत्सर्जन
भव्य भावनात्मक बंधन
जीवनोर्जा समपन्न
मनभावन सबका
अमूल्य रतन भुवन का।
(तृतीय सर्ग)
द्वापर गाथा सामंती व्यवस्था में छिपे मठाधीशों के चरित्र की कमजोरी, खोखलेपन, सत्ता के आड़ में चारित्रिक पतन पर अपनी प्रवीण लेखनी की धार से वार किया है। अंतिम पंक्तियाँ तो संपूर्ण द्वापर गाथा का सार है-
राजा होना
बड़ी बात है
बडा होना
सबकुछ नहीं।
संपन्नता से क्या होता
बगल विपन्नता बिलख रही?
शक्ति सुरक्षा देकर ही
सचमुच होती शक्ति
व्यक्ति सरल होकर ही
पा सकता है भक्ति।
कोई कुछ न रहे तब भी
कुछ अंतर न आता कोई
आवश्यकता आज इतनी ही
कि आदमी रहे आदमी।
ध्रुव नारायण सिंह राई की “द्वापर गाथा” महाकाव्य एक अच्छी कृति है, जब लेखक जीवित थे तो “द्वापर गाथा” मुझे उपहार दिये थे और इसके बारे में लिखने के लिए कहे, किन्तु मैं लिख नहीं पाई। उनके सुपुत्र आलोक राई ने इस पुस्तक की द्वितीय संस्करण दिए और बड़े प्रेम से लिखने के बारे में कहा। मैं आलोक का प्यार भरा अनुरोध अस्वीकार नहीं कर सकी। यह पुस्तक कोसी अंचल की ही नहीं पूरे राष्ट्र की धरोहर है। छोटे से कस्बे का एक कवि “द्वापर गाथा” महाकाव्य लिखता है, यह उनके अदभूत काव्य प्रतिभा का द्योतक है, पाठकीय संवेदना को झकझोरने में पूर्णतः सक्षम है। सही कहा गया है कवि समाज का सच्चा फोटोग्राफर होता है, जिनकी कलम सत्य लिखने से पीछे नहीं हटती। अंत में इस महाकाव्य के लिए महाकवि को हृदय से बधाई और शुभकामनाएँ देती हूँ।
समीक्षक डॉ. अलका वर्मा त्रिवेणीगंज, जिला- सुपौल, बिहार, 852139 मो. — 7631307900 |
पुस्तक का नाम- “द्वापर गाथा” महाकाव्य रचनाकार का नाम- श्री ध्रुव नारायण सिंह राई प्रथम संस्करण- 2012 माधविका प्रकाशन |
कही-अनकही अलका वर्मा |
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एक मुट्ठी इजोर डॉ. अलका वर्मा |
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आओ बच्चों देखो फूल बाल कविता संग्रह डॉ. अलका वर्मा |
डॉ. अलका वर्मा मुझे मेरे नाम से पुकारो |
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