यह उस समय की मेरी रचना है जब मैं छोटा था और पिता महाकवि ध्रुव नारायण सिंह राई को समझ नहीं पा रहा था। उनकी वयस्तता और बाहर जाने से एक खालीपन सा लगना और बहुत सारे सवालात तथा समस्याओं से घिड़ जाना। कवि सम्मेलनों का उनके द्वारा करवाना, कवि सम्मेलनों में उनका दूसरे जगहों पर जाना तथा साहित्य से जूड़े और उनके लगाव के लिए उनका समर्पन तथा विभिन्न बातों को मेरे बाल कवि मन से कवि के पुत्र होना कुछ कठीन सा महसूस होना और इस कविता को मैंने माध्यम बनाकर पिता महाकवि ध्रुव नारायण सिंह राई के लिए लिखी थी की वे इसको पढ़ कुछ समझे(मैं भी बाल कवि बन उनके साथ कवि सम्मेलनों में जाया करता था, वे मेरे लेखन के पहले से ही प्रेरणा श्रोत रहे हैं), उन्हें कविता बहुत अच्छी लगी और ये कविता क्षणदा पत्रिका में छपि थी जो मैं उनकों समर्पित कर रहा हूँ, अब वो नहीं रहे बस उनके साथ गुजारे लम्हें साथ हैं। धन्यवाद
‘‘द्वापर गाथा‘‘ के रचयिता महाकवि ध्रुव नारायण सिंह राई ने द्वापर युगीन
महतादर्शों की आड़ में हुए दुष्कृत्यों और उन्हें अंजाम देनेवाले भीष्म, विदुर,
धर्मराज युधिष्ठिर जैसे
महानता ओढ़े महत् चरित्रों के खोखलेपन को उजागर कर अपनी यथार्थपरक जीवन-दृष्टि एवं
युग-धर्मिता का परिचय दिया है। इसमें पौराणिक कथा और परम्परा को उतना ही स्वीकार
किया गया है जितना आधुनिक विचारशीलता और तर्क-बुद्धि के संदर्भ में उनकी
प्रासंगिकता है। इस रचना में सही सोच के संदर्भ में ही मनुष्य के भावों, विचारों और अनुभूतियों को अभिव्यक्ति मिली है। कवि
कामायनीकार की तरह सक्षम प्रतीत होता है।
प्रस्तुत महाकाव्य में महाभारत-कथा उसी रूप में विद्यमान
है जैसे तीर्थराज प्रयाग की पावन त्रिवेणी में गंगा-यमुना के साथ अन्तःसलिला
सरस्वती। महाकवि का उद्देश्य द्वापर युग की कथा को दुहराना कतई नहीं है, उनका महत् उद्देश्य तो तद्युगीन विद्रूपताओं, उच्छृंखलताओं, नैतिक
मूल्यों के ह्रास,
स्वार्थान्धता, जीवन-मूल्यों के विघटन आदि जिन कारकों से महासमर की
पृष्ठभूमि बनी,
उनका चित्रणकर तद्युगीन
धटनाओं को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर एक नवीन महाकाव्य के सृजन का
श्रेय लेना है। कवि यूँ तो श्रेय के लिए नहीं लिखता है किन्तु उसकी विलक्षण और
अनुपम प्रस्तुति उसे श्रेय देकर रहती है। राईजी के अनुपम, अनूठे प्रयास को जीवन-मूल्यों के व्यापक परिप्रेक्ष्य
में देखने-परखने की जरूरत है।
विवेक सम्मत विचारों के साथ-साथ
प्रस्तुत रचना का भाषिक सौंदर्य भी प्रभावित करने वाला है। प्रतिपादित विचार मन पर
स्थायी प्रभाव छोड़ते हैं। यह भाषा का कमाल है। ये भाषा को शब्दों में न बाँधकर
शब्दों की नाड़ी पकड़ते हैं,
और उन्हे उचित स्थान पर
प्रयुक्त करते हैं। उनका यही गुण उन्हे श्रेष्ठ साहित्यकार की प्रतिष्ठा प्रदान
करता है।
कविवर युगल किशोर प्रसाद 03.10.2007 न्यू विग्रहपुर बिहारी पथ, पटना-1 मो0: +917352754585